Sant Kabir Das Ji Ke Dohe
कस्तूरी कुण्डल बसै , मृग ढूँढे बन महिं |
ऐसे ही घट राम हैं, दुनिया देखे नाहीं ||
माया मुई न मन मुआ , मरि मरि गया सरीर |
आसा त्रिष्णा न मुई , कह गये दास कबीर
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जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं |
सब अन्धियारा मिट गया , जब देखा दीपक माहीं ||
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मन के हरे हार हैं , मन के जीते जीत |
कहैं कबीर गुरु पाइये , मन ही के परतीत ||
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बौले बोल विचारि के , बैठे ठौर सँभारी |
कहैं कबीर ता दास को , कबहु न आवे हारि ||
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(1)
गुरु को कीजै दण्डवत कोटी कोटी परनाम |
कीट न जाने भृग को गुरु करले आप समान ||
गुरुजी को दण्डवत , बन्दगी एव करोड़ो बार प्रणाम करो | कीड़ा भृंगी
के महत्तव को नहीं जानता , परन्तु भृंगी कीड़े को अपने सदृश बना लेती है ,
वैसे शिष्य को गुरु अपने सदृश बना लेती है ||१ ||
लोका -प्रचलित बात है की भृगी (एक प्रकार की मक्खी )छोटे कीड़ो
को पकड़कर और अपना शब्द सुनकर उसे अपना- सा बना लेती है |
यधपी यह पारस – पत्थर के समान कलिप्त दृष्टांत ही प्रतीत होता है :
तथापि सिध्दांत मे गुरु अपने निर्णय शब्द सुनकर शिष्य को अपने सदृश बना लेती हैं |
( 2 )
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये ,सीस दीजिये दान |
बहुतक भोंदू बही गये ,राखी जीव अभिमान ||
अपने सिर की भेट चढाकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो |परंतु यह सीख न मानकर और तन धनादी का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार मे बह गये गुरूपद –पोत मे न लगे ||२ ||
( 3 )
गुरु की आज्ञा आवै ,गुरु की आज्ञा जाय |
कहैं कबीर सो संत है ,आवागमन नशाय || व्यवहार से भी साधु को गुरू की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए | सदगुरू कहते हैं कि
सन्त वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है ||
( 4 )
गुरू पारस को अन्तरो , जनत है सब सन्त |
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत ||
गुरू में और पारस – पत्थर में अंतर है , यह सब सन्त जानते हैं |( लोक कथन अनुसार ) पारस तो लोहा को सोना ही बनाता है , परन्तु गुरू शिष्य को अपने समान महान बना लेते हैं ||
( 5 )
कुमति कीच चेला भरा , गुरू ज्ञान जल होय |
जनम जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ||
कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है , उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है | जन्म – जन्मांतरों की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं ||
( 6 )
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है , गढ़ि – गढ़ि खोट |
अन्तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ||
गुरु कुम्हार है , और शिष्य घड़ा है , भीतर से हाथ का सहारा देकर , बाहर से चोट मार – मार कर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को गुरु निकालते हैं ||
( 7 )
गुरु समान दाता नहीं , याचक सीष समान |
तीन लोक की सम्पदा , सो गुरु दीनही दान ||
गुरु के समान कोई दाता नहीं , और शिष्य के सदृश याचक नहीं | त्रयलोक की संपत्ति से भी बढ़कर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया है ||
Sant Kabir Das Ji Ke Dohe
( 8 )
जो गुरु बसै बनरसी , सीष समुंदर तीर |
एक पलक बिसरे नहीं , जो गुण होय शरीर ||
यदि गुरु वाराणसी में निवास करें और शिष्य समुद्र के निकट हो , परन्तु शिष्य के शरीर में गुरु का गुण होगा , जो गुरु को एक क्षण भी नहीं भूलेगा ||
( 9 )
लच्छ कोष जो गुरु बसै , दीजै सुरति पठाय |
शब्द तुरी असवार है , छिन आवै छिन जाय ||
यदि गुरु लाख कोस पर निवास कराते हों , तो भी अपना मन उनके चरणों में लगाते रहो | गुरू के सदुपदेश रूपी घोड़े पर सवार होकर अपने मन से गुरुदेव के पास क्षण – क्षण आते – जाते रहना चाहिए |
( 10 )
गुरु को सिर राखिये , चलिये आज्ञा माहिं |
कहैं कबीर ता दास को , तीन लोक भय नाहिं ||
गुरु को अपना सिरमुकुट मानकर , उनकी आज्ञा में चलो | कबीर साहेब कहते हैं , ऐसे शिष्य – सेवक को तीनों लोक में भय नहीं है |
( 11 )
गुरु बिन ज्ञान न उपजै , गुरु बिन मिलै न मोष |
गुरू बिन लखै न सत्य को , गुरू बिन मिटे न दोष ||
गुरु के बिना ज्ञान उत्पन्न होता , गुरू के बिना मोक्ष नहीं मिलता | गुरू के बिना कोई सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता , और गुरू के बिना तन , मन , वचन के दोष नहीं मिटते |
( 12 )
गुरू सों प्रीति निबाहिये , जेहि तत निबहै संत |
प्रेम बिना ढिग दूर है , प्रेम निकट गुरू कंत ||
जैसे बने वैसे गुरू – संतों के प्रेम का निर्वाह करो | निकट होते हुए भी प्रेम बिना वे दूर हैं , और यदि प्रेम है , जो गुरू – स्वामी पास ही हैं ||
( 13 )
गुरू मूरति गति चंद्रमा , सेवक नैन चकोर |
आठ पहर निरखत रहे , गुरू मूरति की ओर ||
गुरु की मूर्ति चंद्रमा के समान है , और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य है | अतः आठों पहर गुरू – मूर्ति की ओर ही देखते रहो ||
( 14 )
गुरू शरणागति छाड़ी के , करै भरोसा और |
सुख संपत्ति की कह चली , नहीं नरक में ठौर ||
गुरू की शरणागति को छोड़कर , जो अन्य दैव – गोसाई क भरोसा करता है , उसकी सुख – संपत्ति की कौन बात चलावे , उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा ||
( 15 )
गुरू मूरति आगे खड़ी , दुतिया भेद कछु नाहिं |
उन्हीं कूँ परनाम करि , सकल तिमिर मिटि जाहिं ||
चैतन्य गुरू की मूर्ति आगे खड़ी है , उसमे दूसरा भेद कुछ मत मानो | उन्हीं की सेवा – बन्दगी करो , फिर सब अंधकार मिट जाएगा ||
Sant Kabir Das Ji Ke Dohe